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मैं मुस्लिम हूँ लेकिन कान्हा से मोहब्बत है...

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मोहम्मद आमिल | UPUKLive

साँवरी सूरत और होंटो पर मधुर मुस्कान लिए बंसी बजाता मुझे एक शख्स बहुत प्यारा लगता है। पता है उसकी बचपन के नटखट अंदाज में माखन की चोरी करना या फिर जवानी के आलम में गोपियो संग रास रचाने वाली लीलाएं मुझे बहुत पसन्द हैं। यही नही मुझे इस शख्स की मधुर मुस्कान में गीता का सार बताना एक सीख देता है। हा मैं बात कर रहा हूँ ब्रज के लाला अपने #कान्हा की। 

भगवान श्री कृष्ण से मुझे बहुत लगाव है। मैं कई बार मथुरा में 84 कौस तो नही लेकिन मुख्य स्थलों पर जरूर घूम कर आया हूँ। जब भी मन में बैचेनी उठी तब मैं मथुरा पहुंचा हूँ। जन्म भूमि, गर्भ ग्रह, द्वारकाधीश मन्दिर, व्रन्दावन, गोकुल, रमणरेत आदि। तीर्थ स्थलो पर जाकर मैंने भगवान श्री कृष्ण से जुडी यादें ताजा की हैं। बात बचपन से शरू करू तो सन्डे का दिन मेरे लिए स्पेशल हुआ करता था। 

सुबह के वक़्त छत पर चढ़कर सबसे पहले बांस पर टँगे एंटीना को इधर-उधर घुमाकर दूरदर्शन चैनल सैट करना पड़ता था। जैसे ही ब्लैक & व्हाइट टीवी पर रामानन्द सागर का महाभारत शुरू होता तो हम टीवी से चिपककर सबसे आगे बैठ जाते। पूरे 1 घण्टे तक हम बड़े मजे से कान्हा की लीलाओ का मजा लेते। ख़ैर यह तो बचपन की बात रही लेकिन जैसे-जैसे बड़े हुए कान्हा की लग्न मन में लगी रही। 

जन्माष्टमी के अवसर पर मैं अपने हिन्दू और मुस्लिम दोस्तों के साथ मिलकर घर के पीछे मास्टर रामअवतार गुप्ता जी के घर के सामने स्थित सुनहारो वाले मन्दिर को सजाकर कान्हा का जन्मदिन मनाते थे(वक़्त के बदलाव के कारण आज उस मन्दिर की दुर्दशा हो गयी है, अब यहा कोई आयोजन नही होता), साथियो के साथ डांडिया खेलते और खूब धूम मचाते थे। 

आज भी कान्हा के जन्म पर मन में अलग ही उत्साह होता है। वो तो भला हो इस गन्दी सियासत का कि कम से कम राजनीति के इस गन्दे खेल से भगवान श्री कृष्ण बचे हुए हैं वरना यह गन्दा खेल मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम की तरह गीता का उपदेश देने वाले कान्हा को भी बदनाम कर सकता है। बदनाम से याद आया मैं जब मथुरा से कुछ किलोमीटर की दूरी पर स्थित रमणरेत पहुंचा, यह वह स्थान है जहा नटखट कान्हा बचपन में अपने साथियो के साथ लोटा(शुद्ध भाषा में कलामुंडी खाना) मारा करते थे। 

हम यहा से सीधे गोकुल पहुंचे वहा एक शख्स जो गाइड का काम कर रहा था वो हमे जानकारी दे रहा था कि गोकुल का रिवाज बहुत अलग है यहा मुसलमान नही मिलेगा, कौव्वा नही मिलेगा जैसी बेफिजूल की बाते बताकर यह शख्स आने वाले श्रद्वालुओं को बेबकूफ बनाने के साथ उनके मन में नफरत के बीज बो रहा था यह काम गोकुल के मुख्य मन्दिर में पुजारी भी कर रहे थे। जब मैं मन्दिर में कान्हा के झूले को झोका दे रहा था तो पुजारी के मुह से यह बाते सुनकर हैरान था। 

मैं सोच रहा था भला जो शख्स 5200 वर्ष पूर्व धरती पर आकर इंसानो को प्रेम का मतलब सिखा गया हो उसकी नगरी में 1400 वर्ष पूर्व के मुसलमानो के प्रति ऐसा भेदभाव? यकीन नही हुआ। मेरा ध्यान रसखान की ओर गया लेकिन फिर मैंने अपने को ऐसी पवित्र नगरी में खड़ा पाया तो मैंने उनकी बातों पर ध्यान न देकर उस कातिल मुस्कान वाले की मूरत देख मन में अपार ख़ुशी लिए वहा से चला आया। 

अजीब इतफ़ाक है? ब्रज की धरा पर वाकई प्रेम और शान्ति की फसल लहलहाती है। भगवान श्री कृष्ण के पाँवो से पवित्र हुयी इसी धरा पर प्रेम का सन्देश देने के लिए अरब से मारहरा(ब्रज क्षेत्र) के लिए सैयद अब्दुल जलील साहब आए उन्ही के पोते सैयद शाहबरकतुल्ला साहब की आज पूरी दुनिया में धूम हैं। इसी पावन धरा पर पैगम्बर मोहम्मद साहब की कई निशानिया मौजूद हैं। इस प्रेम से पगी ब्रज की धरा की खुश्बू लिए सैयद शाह बरकतुल्लाह साहब का यह दोहा आज भी प्रचलित है-
       "पेमी हिन्दू-तुर्क में रंग एक ही रहे समाए,         देवल और मसीद में दीप एक ही भाए।।"

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