मुरादाबाद। अब सर्दियों में वे नजारे कम ही देखने को मिलते है। दोपहर की गुनगुनी धूप में मां, चाची-ताई, मामी, बुआ पड़ोस की आंटियों के साथ छत पर चटाई पर बैठ जाती थी। मुंह में दुनिया भर की बातें, लेकिन सबके हाथों में सलाई और ऊन के धागे। उनकी बातों की तरह लगातार चलती अंगुलियां खटाखट एक दो दिन में पूरा स्वेटर बुन देती थी। उन स्वेटरों में संबधों की उष्मा, अपनत्व की सुगंध रच बस जाती थी।
लेकिन अब हाथ के बने स्वेटर एवं जर्सी दूर की बात हो चली है। इनका चलन पहले की तरह नहीं रहा। युवा पीढ़ी ह्रदयहीन मशीनों पर फिदा है। नई पीढ़ी की महिलाओं को इतनी फुर्सत नहीं कि वह स्वेटर बुनने में रूचि ले। लेकिन अभी भी एक पूरी पीढ़ी है, जिसने हाथों के बुने स्वेटर पहन कर पूरी उम्र ही गुजार दी। आधुनिकता के दौर में किसी भी शख्स का महंगा पहनावा उसका स्ट्ेटस सिंबल बन चुका है। हाथ का बना स्वेटर पहनने की बजाय लोग ब्रांडेड शोरूम से जर्सियां या स्वेटर पहनना ही पंसद करते हैं।
सत्तर वर्षीय जमीला खातून आज भी स्वेटरों को भावनाओं से जोड़ती है। उनका कहना है कि स्वेटर बुनने के दौरान एक-दूसरे के प्रति प्यार की भावना झलकती थी। वह अब गायब हो चुकी है। महिलायें अब छतों पर एकत्र नहीं होती। उनके पास एक दूसरे से बात करने का समय ही नहीं है। पैसठ वर्षीय रानी कहती है कि हाथ से बुने स्वेटर एवं जर्सी में मानवीय संवेदनाएं झलकती थी। बुजुर्ग यशपाल, राजकुमार, अल्लादिया, शफीक अहमद, शिवकुमार ने बताया कि उन्होंने जिंदगी भर अपनी पत्नी के हाथों से बुने स्वेटर जर्सी पहने है। तब इन स्वेटर जर्सियों की अलग ही वैल्यू होती थी।
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