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विश्व कठपुतली दिवस पर विशेष : लुप्त होती कठपुतली कला

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फ़िरदौस ख़ान | UPUKLive

भारतीय संस्कृति का प्रतिबिंब लोककलाओं में झलकता है. इन्हीं लोककलाओं में कठपुतली कला भी शामिल है. यह देश की सांस्कृतिक धरोहर होने के साथ-साथ प्रचार-प्रसार का सशक्त माध्यम भी है, लेकिन आधुनिक सभ्यता के चलते मनोरंजन के नित नए साधन आने से सदियों पुरानी यह कला अब लुप्त होने की क़गार पर है.

कठपुतली का इतिहास बहुत पुराना है. ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में पाणिनी की अष्टाध्यायी में नटसूत्र में पुतला नाटक का उल्लेख मिलता है. कुछ लोग कठपुतली के जन्म को लेकर पौराणिक आख्यान का ज़िक्र करते हैं कि शिवजी ने काठ की मूर्ति में प्रवेश कर पार्वती का मन बहलाकर इस कला की शुरुआत की थी. कहानी 'सिंहासन बत्तीसी'में भी विक्रमादित्य के सिंहासन की बत्तीस पुतलियों का उल्लेख है. सतवध्दर्धन काल में भारत से पूर्वी एशिया के देशों इंडोनेशिया, थाईलैंड, म्यांमार, जावा, श्रीलंका आदि में इसका विस्तार हुआ. आज यह कला चीन, रूस, रूमानिया, इंग्लैंड, चेकोस्लोवाकिया, अमेरिका व जापान आदि अनेक देशों में पहुंच चुकी है. इन देशों में इस विधा का सम-सामयिक प्रयोग कर इसे बहुआयामी रूप प्रदान किया गया है. वहां कठपुतली मनोरंजन के अलावा शिक्षा, विज्ञापन आदि अनेक क्षेत्रों में इस्तेमाल किया जा रहा है.
 
भारत में पारंपरिक पुतली नाटकों की कथावस्तु में पौराणिक साहित्य, लोककथाएं और किवदंतियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. पहले अमर सिंह राठौड़, पृथ्वीराज, हीर-रांझा, लैला-मजनूं और शीरी-फ़रहाद की कथाएं ही कठपुतली खेल में दिखाई जाती थीं, लेकिन अब साम-सामयिक विषयों, महिला शिक्षा, प्रौढ़ शिक्षा, परिवार नियोजन के साथ-साथ हास्य-व्यंग्य, ज्ञानवर्ध्दक व अन्य मनोरंजक कार्यक्रम दिखाए जाने लगे हैं. रीति-रिवाजों पर आधारित कठपुतली के प्रदर्शन में भी काफ़ी बदलाव आ गया है. अब यह खेल सड़कों, गली-कूचों में न होकर फ़्लड लाइट्स की चकाचौंध में बड़े-बड़े मंचों पर होने लगा है.

छोटे-छोटे लकड़ी के टुकड़ों, रंग-बिरंगे कपड़ों पर गोटे और बारीक काम से बनी कठपुतलियां हर किसी को मुग्ध कर लेती हैं. कठपुतली के खेल में हर प्रांत के मुताबिक़ भाषा, पहनावा व क्षेत्र की संपूर्ण लोक संस्कृति को अपने में समेटे रहते हैं. राजा-रजवाड़ों के संरक्षण में फली-फूली इस लोककला का अंग्रेजी शासनकाल में विकास रुक गया. चूंकि इस कला को जीवित रखने वाले कलाकार नट, भाट, जोगी समाज के दलित वर्ग के थे, इसलिए समाज का तथाकथित उच्च कुलीन वर्ग इसे हेय दृष्टि से देखता था.
 
महाराष्ट्र को कठपुतली की जन्मभूमि माना जाता है, लेकिन सिनेमा के आगमन के साथ वहां भी इस पारंपरिक लोककला को क्षति पहुंची. बच्चे भी अब कठपुतली का तमाशा देखने की बजाय ड्राइंग रूम में बैठकर टीवी देखना ज़्यादा पसंद करते हैं. कठपुतली को अपने इशारों पर नचाकर लोगों का मनोरंजन करने वाले कलाकर इस कला के क़द्रदानों की घटती संख्या के कारण अपना पुश्तैनी धंधा छोड़ने पर मजबूर हैं. अनके परिवार ऐसे हैं, जो खेल न दिखाकर सिर्फ़ कठपुतली बनाकर ही अपना गुज़र-बसर कर रहे हैं. देश में इस कला के चाहने वालों की तादाद लगातार घट रही है, लेकिन विदेशी लोगों में यह लोकप्रिय हो रही है. पर्यटक सजावटी चीज़ों, स्मृति और उपहार के रूप में कठपुतलियां भी यहां से ले जाते हैं, मगर इन बेची जाने वाली कठपुतलियों का फ़ायदा बड़े-बड़े शोरूम के विक्रेता ही उठाते हैं. बिचौलिये भी माल को इधर से उधर करके चांदी कूट रहे हैं, जबकि इनको बनाने वाले कलाकर दो जून की रोटी को भी मोहताज हैं.

कठपुतली व अन्य इसी तरह की चीज़ें बेचने का काम करने वाले बीकानेर निवासी राजा का कहना है कि जीविकोपार्जन के लिए कठपुतली कलाकारों को गांव-क़स्बों से पलायन करना पड़ रहा है. कलाकरों ने नाच-गाना और ढोल बजाने का काम शुरू कर लिया है. रोज़गार की तलाश ने ही कठपुतली कलाकरों की नई पीढ़ी को इससे विमुख किया है. जन उपेक्षा व उचित संरक्षण के अभाव में नई पीढ़ी इस लोक कला से उतनी नहीं जुड़ पा रही है जितनी ज़रूरत है. उनके परिवार के सदस्य आज भी अन्य किसी व्यवसाय की बजाय कठपुतली बनाना पसंद करते हैं. वह कहते हैं कि कठपुतली से उनके पूर्वजों की यादें जुड़ी हुई हैं. उन्हें इस बात का मलाल है कि प्राचीन भारतीय संसकृति व कला को बचाने और प्रोत्साहन देने के तमाम दावों के बावजूद कठपुतली कला को बचाने के लिए सरकारी स्तर पर कोई प्रयास नहीं किया जा रहा है.
 
पुरानी फ़िल्मों और दूरदर्शन के कई कार्यक्रमों में कठपुतलियों का अहम किरदार रहा है, मगर वक़्त के साथ-साथ कठपुतलियों का वजूद ख़त्म होता जा रहा है. इन विपरीत परिस्थितियों में सकारात्मक बात यह है कि कठपुतली कला को समर्पित कलाकारों ने उत्साह नहीं खोया है. भविष्य को लेकर इनकी आंखों में इंद्रधनुषी सपने सजे हैं. इन्हें उम्मीद है कि आज न सही तो कल लोककलाओं को समाज में इनकी खोयी हुई जगह फिर से मिल जाएगी और अपनी अतीत की विरासत को लेकर नई पीढ़ी अपनी जड़ों की ओर लौटेगी.

( लेखिका फ़िरदौस ख़ान को लफ़्ज़ों के जज़ीरे की शहज़ादी के नाम से जाना जाता है. वह पत्रकार, शायरा और कहानीकार हैं. वह कई भाषाओं की जानकार हैं. उन्होंने दूरदर्शन केन्द्र और देश के प्रतिष्ठित समाचार-पत्रों में कई साल तक सेवाएं दीं. उन्होंने अनेक साप्ताहिक समाचार-पत्रों का संपादन भी किया.)

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