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आजाद हिंद फौज का सिपाही 90 साल की उम्र में भीख मांग कर पाल रहा है परिवार

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देश की आजादी के लिए अपने प्राणों की परवाह किए बिना लड़ाई लड़ने वाले सिपाही आज भीख मांग कर अपनी जिंदगी की गुजर बसर कर रहा है। हम बात कर रहे हैं आजाद हिंद फौज के एक सिपाही की। जिसने कई फौज में शामिल होकर भारत की आजादी के लिए जंग लड़ी आज वो दाने दाने का मोहताज है।

श्रीपत का जन्‍म ओरछा स्टेट के कुरा गांव में हुआ था। उस समय देश में अंग्रेजों का साम्राज्य था। श्रीपत अपने पिता से महारानी लक्ष्मीबाई, चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह और सुभाषचंद्र बोस की वीरता और साहस से भरी कहानियां सुनते थे। देश प्रेम से जुड़ी कहानिया सुनते सुनते उनमें देश के लिए ऐसा प्रेम बढ़ा कि वह बचपन में ही क्रांतिकारियों के संपर्क में रहने लगे। इस दौरान उन्हें पता चला कि नेताजी सुभाषचंद्र बोस झांसी आ रहे हैं। वह उनसे मिलने के लिए झांसी आए और उनके दिए भाषण बहुत प्रभावित हुए। 'तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा'जैसे नारे से प्रभावित श्रीपत ने आजाद हिंद फौज में शामिल होने के लिए बंदूक का लाइसेंस तक बनवाया था।
बेटे ने नशे और जुएं में बेच डाली जमीन और बंदूक
झांसी के रहने वाले श्रीपत 90 साल के है। आजाद हिंद फौज में शामिल हुए श्रीपत आज भीख मांगने को मजबूर हैं। वे चौराहे-चौराहे भीख मांगकर किसी तरह जिंदगी गुजर बसर कर रहे हैं। पत्नी के साथ हंसारी एरिया में एक झोपड़ी में रहने वाले श्रीपत ने बताया कि कभी वह सात एकड़ जमीन के मालिक हुआ करते थे। उनके पास एक लाइसेंसी बंदूक थी। उनके बेटे तुलसिया ने नशे और जुएं की लत के कारण सब कुछ बेच दिया। कुछ दिनों तक खेत में मजदूरी करने के बाद हाथ-पैरों ने भी काम करना बंद कर दिया। अब ये नौबत आ गई है कि पेट भरने के लिए चौराहे-चौराहे पर जाकर भीख मांगनी पड़ती है। 

नेता जी से मिलने के लिए गांव से पैदल चल कर झांसी पहुंचे थे श्रीपत 
कांग्रेस के सीनियर लीडर भानू सहाय ने बताया कि जब सुभाषचंद्र बोस 1939 में झांसी आए थे। उस समय श्रीपत अपने गांव से पैदल चलकर झांसी पहुंचे थे। नेताजी जैसे ही श्रीपत के सामने से निकले श्रीपत ने उनके पैर छुए। इसके बाद नेताजी ने उन्हें गले लगा लिया। दोनों की जहां पहली मुलाकात हुई थी उस जगह को आज लोग सुभाषगंज के नाम से जानते हैं। श्रीपत ने नवंबर 1943 में आजाद हिंद फौज ज्वाइन की थी। जब नेताजी ने बर्मा युद्ध के लिए संदेशा भेजा तो श्रीपत और उनके साथियों पर अंग्रेजी हुकूमत की नजरें थीं। इसी वजह से श्रीपत और उनके साथी युद्ध में शामिल नहीं हो सके थे। जब नेताजी के निधन की सूचना आई तो उन्हें बहुत दुख हुआ। श्रीपत ने अपनी बंदूक कई क्रांति‍कारियों को आजादी की लड़ाई लड़ने के लिए दी।

कौन हैं गुमनामी बाबा 
नेताजी सुभाषचंद्र बोस होने के दावे के बीच गुमनामी बाबा आजकल काफी चर्चा में हैं। बीते दिनों यूपी के फैजाबाद ट्रेजरी में बंद उनके बक्से को 10 मेंबरों वाली एडमिनिस्ट्रेटिव कमि‍टी ने खुलवाया था। इसमें अब तक एक गोल फ्रेम का चश्मा, रोलेक्स घड़ी, तांत की साड़ी, काली की मूर्ति, बंगाली भाषा में लिखे साहित्य और पत्र के साथ-साथ बंगाल के बने कुछ सामान मिले थे। श्रीपत से इस बारे में पूछने पर उन्‍होंने कुछ नहीं बताया। आईनेक्स्ट

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