‘मौत की किताब’ पर तफसील से बात करने से पहले कुछ उन नए तरीकों और बातों का जिक्र जो इसे दूसरी किताबों से थोड़ा अलग तरह से व्यक्त करती हैं. अलग होना यूं ही नहीं होता. इसका कोई न कोई कारण होता है और शायद यही किसी किताब में अपनी तरह का एक तारतम्य पैदा करता है. ऐसा तारतम्य जिसमें एक लफ्ज भी फालतू न हो. कहा उतना ही जाए जितने की जरूरत हो. अच्छी किताब का एक दुर्लभ गुण यह भी होता है कि उसे अपनी चौहद्दियों का पता होता है, वह उससे बाहर अपने पांव नहीं पसारती. न ही व्यर्थ का वितान रचती है. ये सब गुण इस किताब में भरपूर हैं.
किताब जिनको समर्पित है उसके बारे में दो महत्वपूर्ण बातें –
यह किताब संस्कृत भाषा के शब्द ‘ऋ’ और किताब के आखिरी कुछ पन्नों को समर्पित की गई है.
1. इसके अंतिम के कुछ पृष्ठ अलिखित हैं जो संभावनाओं और सोच के तारों को अनंत विस्तार देते हैं. आखिर इन पन्नों में क्या दर्ज होना था जो बाकी रह गया... दरअसल कोई जगह खाली जगह नहीं होती. खाली हम होते हैं कि उसे हम भर या पाट नहीं पाते. उस खालीपन को बूझना हमारे बस की बात नहीं होती. शून्य भी होता है वह खालीपन और अपने इन सादे पन्नों से जिंदगी के इसी शून्य की यह किताब व्याख्या करती है.
'मौत की किताब'के अंतिम के कुछ पृष्ठ अलिखित हैं जो संभावनाओं और सोच के तारों को अनंत विस्तार देते हैं. अपने इन सादे पन्नों से जिंदगी के शून्य को यह किताब व्याख्यायित करती है
2. दर्शनशास्त्र और उर्दू साहित्य के जानकार लेखक खालिद जावेद की यह किताब इन खाली पन्नों के साथ ही जिस दूसरे को समर्पित है, वह है संस्कृत भाषा का रहस्मय शब्द या व्याकरण की भाषा में कहें तो धातु ‘ऋ’ . बहुत कम या फिर न के बराबर प्रयोग में आनेवाले संस्कृत भाषा के इस शब्द को किताब को सौंपना कुछ वैसा ही है जैसे किताब को एक अमाप विस्तार देना. असीम तक उसकी सीमाओं को खुला छोड़ देना. उसे अपने-अपने ढंग से थाहने की आजादी देना. हम अपनी-अपनी समझ से समझते रहें, थाहते रहें इस दुनिया और दुनियावी दर्द और उसकी तहों को. लेखक के शब्दों में कहें तो रचना भी तो कुछ वैसी ही है. ‘ऋ’ धातु जैसी, ‘ऋ’ आग के जलने जैसी आवाज है जो लिखने की तमाम गंदगियों को जलाकर राख कर देती है.’
अब इस किताब के शुरू में आने वाले कुछ उद्धरणों की बात -
‘कोई फूल पत्ता या पौधा कितना ही नाजुक, कितना ही हैरतंगेज, कितना ही मुख्तलिफ क्यों न हो, किसी अनाड़ी की आंखों को वह ज्यादा देर ख़ुशी नहीं बख्श सकता. प्रकृति का लुत्फ़ उठाने के लिए उसकी थोड़ी बहुत समझ तो हो. अलग-अलग किस्म के पौधों के आपसी रिश्तों, उनकी खूबियों और अद्वितीयता का कुछ तो ज्ञान हो! और सबसे ज्यादा जरूरी तो यह है कि मिट्टी का ज्ञान होना चाहिए’ – जाक रूसो
यह सूत्र हमें किताब पढ़ने और समझने की एक भूमिका थमाता हैं. चीजों को देखने-समझने का एक बारीक नजरिया. चीजें बाहर से भी कहीं अधिक हमारे भीतर होती हैं. हम उसे वैसे ही और उतना ही देखते हैं जितना वह हमारे भीतर है. भीतर के इस होने को ही हम संवेदना कहते हैं और उसे अपने तईं मापते हैं.
किताब - मौत की किताब
लेखक - खालिद जावेद
उर्दू भाषा से अनुवाद - अकबर रिजवी
प्रकाशक - दखल प्रकाशन
पृष्ठ - 84
अब बात प्रस्तावना में आनेवाले उस अंतिम और तीसरे उद्धरण की जिसके इर्द-गिर्द यह पूरी किताब यूं घूमती है, जैसे धरती सूरज के इर्द-गिर्द.
‘बचपन में एक गुब्बारा हाथ में थामे एक सड़क पर दौड़ता हुआ जा रहा था. मैं बहुत खुश और मगन था कि गुब्बारा अचानक आवाज के साथ फट गया. मैंने पीछे मुड़कर देखा, सड़क पर काबिले-रहम अंदाज में एक पिचकी हुई रबड़ की एक लिजलिजी-सी चीज पड़ी हुई थी. अब इस उम्र में मुझे यह समझ में आया वह पिचकी हुई चीज दुनिया थी’ - होजे सारामागो
दरअसल यह वाक्य इस किताब के नायक की मनःस्थिति भी है. बेटे को अपनी जायज संतान न माननेवाला क्रूर और वहशी पिता, गृह कलह में सर से पांव तक डूबा कोई घर, शेरनी की तरह मजबूत पर औलाद को लेकर बहुत कमजोर एक औरत. नीले दुपट्टे वाली प्रेमिका और अपने हालात में जीने को मजबूर पत्नी, स्त्री जीवन के बहुत से रंग हैं इस किताब में. दरअसल नायक के ऐसा होने में या कहानी के ऐसा होने में मूल भूमिका इन स्त्रियों की भी है. मां का दुःख इस कहानी की मूल जमीन है. पिता जैसा दिखता वह शख्स दरअसल पिता जैसा बिलकुल नहीं होना चाहता. न चाहते हुए भी होना अगर त्रासदी है तो जीवन से पलायन उस होने को अनहुआ करने जैसा है.
दुक्खीम के शब्दों में ‘आधुनिक समाज की इस सबसे बड़ी दुर्घटना ‘आत्महत्या’ पर मुंह सिलना अपनी खोल में किसी कछुए की तरह सिमटने जैसा है, अपने आप से इस नृशंस दुनिया की सच्चाइयों से मुंह चुराने जैसा.
यह किताब दिमागी ऊपरी तौर पर दिमागी रूप से एक अस्वस्थ व्यक्ति की कथा है जिसे पागलखाना पाठशाला दिखती है और दुनिया ‘बेहोश इंसानों के लिए बनी हुई एक बेमतलब की जगह’
आत्महत्या वह एकमात्र सूत्र है जो समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, दर्शन, धर्म और रहस्यवाद को एक सिरे से जोड़ता है. वह दरअसल प्यार और ध्यान पाने की आखिरी नाकामयाब कोशिश होती है. अपने वजूद को चीन्हे जाने की आखिरी तलाश. दुनिया से नाराज किसी व्यक्ति में एक उम्मीद भी दबी होती है कहीं न कहीं. जो कौंधती है रह रहकर और जिसके आलोक में जिंदगी की विरुपताएं और भद्दी और बुरी दिखती हैं. जिंदगी को उसी फूट चुके लिजलिजे गुब्बारे की शक्ल में देखने वाली यह किताब उसकी त्रासदियों, दुखों और यातनाओं की महागाथा है.
अनचाहे होने के दर्द और चाहे जाने के बीच ही होती है कोई खाली सी एक जगह. संस्कृत की ‘ऋ’ धातु की तरह. या फिर किताब के उन अंतिम कोरे पन्नों की तरह. दरअसल खुदकुशी वहीं दुबककर बैठी होती है. जब कोई नहीं पुकारता तो वह पुकारती है हमें पूरी आत्मीयता और लगाव से. किसी पालतू कुत्ते की तरह हमारे जख्म चाटती है और लगाव और प्यार के भूखे लोग इस आत्मीयता को उसी प्यार की चाहत में फिर गले लगा लेते हैं.
ये जिंदगी से हार माननेवाले लोग नहीं, दरअसल जिंदगी को बहुत शिद्दत से चाहनेवाले लोग होते हैं. वे अपनी जिंदगी की बदशक्लियत से ऊबे और खीजे हुए होते हैं. उनके सपनों का संसार बहुत सुन्दर होता है और दुनिया उतनी ही भयावह. यह उनका प्रतिरोध होता है इस बदशक्ल दुनिया के खिलाफ जिसे हम उनकी कायरता घोषित करते हैं.
यह किताब दिमागी ऊपरी तौर पर दिमागी रूप से एक अस्वस्थ व्यक्ति की कथा है जिसे पागलखाना पाठशाला दिखती है और दुनिया ‘बेहोश इंसानों के लिए बनी हुई एक बेमतलब की जगह’. खुदकुशी हमेशा जिसके अगल-बगल आसपास या फिर जूते में छिपी बैठी रहती है. उसे उकसाती है. नायक के अनुसार वह उसकी हमजाद है और वह इस दुनिया में उसके साथ ही आई थी. जाहिर है इस सोच के उसके अपने कारण हैं. वह हर बार उसके उकसावे पर खुदकुशी करने निकलता है और उस रास्ते के अधबीच से लौट आता है. इससे ख़ुदकुशी नाराज नहीं होती. उस अंतिम पुकार के आसार में दुबककर बैठ जाती है कहीं उसी के भीतर. अंतिम बार ख़ुदकुशी खुद नहीं आती वह उसे पुकारकर बुलाता है. अपनी मर्जी से उसे चुनता है. यही वह पल है जब उसके इस निर्णय पर उसकी जिंदगी की यात्ना से गुजरनेवाले पाठक राहत की सांस लेता है.
इस किताब के एक-एक वाक्य पर सोचने का मन हो जाता है और शायद यही खूबी है कि ‘मौत की किताब’ अपने बहुत छोटे से कलेवर के बावजूद क्लासिक की श्रेणी में रखे जाने का माद्दा रखती है
मौत की किताब असल में जिंदगी की किताब है. जीने के लिए लड़नेवाली, दुनिया को जीने लायक खूबसूरत बनाने की वकालत करती किताब. यह आत्महत्या के कारणों, जिंदगी की दुश्वारियों और अनचाहे होने की पीड़ा को व्यक्त करने और खुदकुशी के कारणों को तलाशने वाली किताब है. खुदकुशी करने वालों मन-जीवन कैसा होता है, वे इस दुनिया के लिए क्या सोचते हैं और किन परिस्थितियों में जीते हैं, यह किताब भरे के बीच के उनके इसी तरह के खालीपन को रखांकित करती है.
इस किताब से गुजरना इसलिए भी त्रासद है कि यह हमारे वजूद को, समय को आईना दिखाती है. इसे पढ़ना खुद को आईने में देखकर सिहरने जैसा है. डरना और भयभीत होना भी. महाभारत के युयुत्सु की तरह अपने निरंतर बने रहनेवाले घावों को सहना, सहलाना. हो सकता है इसे पढ़ते हुए कई बार यह मन हो कि बस रहने ही दें इसे, पर पूरी पढ़े बिना यह किताब अधूरेपन में और ज्यादा पीछा कर सकती है.
जिन्हें गंभीर रचनाओं से परहेज है, जिनके लिए पढ़ना अपनी आत्मा को विस्तार देने से ज्यादा थकी-हारी इन्द्रियों को आराम देना या सेंकना भर हो, उनके लिए यह किताब नहीं है. जिन्हें घोंघे की तरह अपने खोलों में दुबके रहने की आदत है, यह किताब उनके लिए भी बिल्कुल नहीं है. इसे पढ़ना एक खूबसूरत दुनिया के लिए खुद को प्रतिबद्ध करना है, अपनी आत्मा को अधिक विस्तार देना.
जिन्हें गंभीर रचनाओं से परहेज है, जिनके लिए पढ़ना अपनी आत्मा को विस्तार देने से ज्यादा थकी-हारी इन्द्रियों को आराम देना या सेंकना भर हो, उनके लिए यह किताब नहीं है
इस किताब को पढ़ते हुए आपको बरसों से लापता लेखक स्वदेश दीपक याद आ सकता है. उनका आत्मकथात्मक उपन्यास ‘मैंने मांडू नहीं देखा’ भी आप शिद्दत से याद कर सकते हैं और उनकी कई कहानियां भी. आपको कृष्ण बल्देव वैद का ‘उसका बचपन’ भी याद आ सकता है. आपको शैलेश मटियानी भी याद आ सकते हैं.
जीवन की विडंबना, गल्प और बहाव इस किताब की वे विशेषताएं हैं जिसके लिए इसे हमेशा याद रखा जाएगा. इस किताब के एक-एक वाक्य पर सोचने का मन हो जाता है और शायद यही खूबी है कि ‘मौत की किताब’ अपने बहुत छोटे से कलेवर के बावजूद क्लासिक की श्रेणी में रखे जाने का माद्दा रखती है. यह किताब मूल रूप से उर्दू में लिखी गई थी लेकिन हिंदी में इसका बहुत ही सहज अनुवाद हुआ है. इसके लिए अकबर रिजवी दिल से तारीफ के हकदार हैं. (सत्यागृह)